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About Akhila Bhu-mandaliya Sarvosiromani Muni Samaj

"Akhila Bhumandaliya Sarvosiromani Muni Samaj" - in short, "Muni Samaj" was started by Sadgurudev Shiv Muni Maharaj ji. With a confident and fearless mind, he challenged the so called falsehood in Hindu Religion and preached the pure Sanatan Dharma with non-dualistic view of Atma(soul). With chant "शिवोऽहम्" (Shivoham) he stated to investigate and understand the true nature of the Atman (self) by rejecting the Anatma’s (Non-self). He demonstrated that Yoga is for enlightenment of Atma(soul) and in this process body heals itself automatically. Chakra Vedan Sadhan is the best and easiest way to heal body, mind, soul and attain state of happiness, freedom, peace of mind and Samadhi (enlightenment).

 

 

The main aim of this space is to spread correct knowledge on yoga. Yoga is not mere exercise to heal body but to enlighten your soul and show you your own power. Begin with healing of your body, mind, soul and achieve the most wanted HAPPINESS..

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A member of 'Muni Samaj' is called a 'Muni'. Proper meaning of a muni and muni samaj is described below.

मुनि के लक्षण

  1. जो किसी मजहब अथवा सम्प्रदाय का पक्ष न लेकर आत्मोन्नति के मार्ग पर परमस्वतन्त्र बुद्धि सेविचार करता है वह मुनि है।

  2. आत्मबल, ज्ञानबल, योगबल और मनोबल बढ़ाने का जो नित्य साधन करता है, वह मुनि है।

  3. जो किसी का अनुयायी न होकर अपने स्वतंत्र बुद्धि से विचारते हुए अपनी आँखों से देखकर चलता है वह स्वतंत्र और स्वावलम्बी मनुष्य मुनि है।

  4. जो सत्य को जानता वा अत्यन्त निष्पक्ष और स्वतंत्र होकर सत्य की खोज मे है और सत्य कहने वाले की प्रतिष्ठा करता है, वह मुनि है।

  5. जो वाद-विवाद से अधिक आत्मोन्नति के विचार और साधन में लगा है और ग्रन्थज्ञान से अधिक अनुभवजन्य ज्ञान का भरोसा करता है, वह मुनि है।

  6. जो रिश्वत, भीख, चोरी और असत्य से घृणा करता हुआ ऐसे शारीरिक वा मानसिक परिश्रम द्वारा जिससे दूसरों का भी उपकार हो, जीवन निर्वाह के लिए धनोपार्जन करता है, वह मुनि है।

परिभाषा

  1. पूर्वोक्त लक्षण और प्रकार के मुनियों के समाज को मुनिसमाज कहा जायेगा।

  2. मुनिसमाज के सदस्य को मुनि स्थानीय, जिला और प्रान्तीय अथवा देशीय मुनिसमाज के अध्यक्ष को मुनिवर तथा अखिल भूमण्डलीय सर्वशिरोमणि मुनिसमाज के अध्यक्ष को मुनीश्वर कहा जायेगा।

उद्देश्य

  1. स्वयं मुनि बनने का यत्न करना और संसार के प्रत्येक प्रान्त अथवा देश मुनिसमाज स्थापित कर लोगो को मुनि बनाने का यत्न करना मुनियों और मुनिसमाज का प्रधान उद्देश्य होगा।

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योगेश्वर शिव मुनि महाराज का जीवन परिचय

  • जन्म: शरदपूर्णिमा आशिवन मास संवत 1941 विक्रमी, शकाब्द 1806 तदनुसार 4 अक्टूबर 1884 ई०, शनिवार, मुनि संवत से 52 वर्ष पूर्व।

  • स्थान: मोहल्ला जगन्नाथपुर, गोरखपुर नगर (उत्तर प्रदेश) भारत।

  • माता: श्रीमती शिवरानी देवी।

  • पिता: पं0 श्रीकान्त ओझा।

  • शिक्षा: षडदर्शन शास्त्री, आयुर्वेदाचार्य।

  • रचनायें: प्रथम पुस्तक "वेदान्त सिद्धान्त" - अंतिम कृति "ईशावास्योपनिषद्‌ का निष्पक्ष भाष्य"।

  • पत्रिका: सन 1913-14 में "ज्ञानशक्ति" नामक पत्रिका का शुभारम्भ किया और स्वयं आजीवन उसके सम्पादक रहे। अब यह मुनिसमाज की मुखपत्रिका है।

  • कुल प्रकाशित पुस्तकें: 35

  • संस्था: 52 वर्ष की आयु में 26 दिसम्बर 1935 ई० को गोरखपुर नगर में अलहदादपुर चौराहे पर सिथत अपने निजी भवन में अखिल भूमण्डलीय सर्वशिरोमणि मुनिसमाज की स्थापना किया और स्वयं संस्थापक - अध्यक्ष (आदि मुनीश्वर) के रुप में सम्पूर्ण जीवन उसके प्रचार - प्रसार में अर्पित कर दिया।मुनिसमाज के स्थापना वर्ष से ही मुनि संवत प्रारम्भ किया।

  • सामाजिक: विवाहित गृहस्थ।

  • महाप्रयाण: 12 फरवरी 1962 ई०, सोमवार मुनि संवत 27 (लखनऊ)।

  • विशेष: मुनिसमाज की स्थापना से पहले “पं० शिव कुमार शास्त्री ' नाम से प्रसिद्ध थे और बाद में “शिवमुनि” नाम विख्यात हुआ।

 

योगेश्वर शिव मुनि महाराज के जीवन से :

            हम स्वयं बहुत रोगी और निर्बल थे । माता-पिता से मालुम हुआ था कि बाल्यावस्था में हमारा शरीर इतना निर्बल था कि ४ वर्ष की अवस्था तक निर्बलता के कारण न चलने की शक्ति थी, न बोलने की । १०-११ वर्ष के बीच में शायद एक दिन भी ऐसा नहीं गया, जिस दिन हमारा यह शरीर किसी न किसी रोग से बीमार न रहा हों। वेद्यों; हकीमों और डाक्टरों ने औषधि से हमारे शरीर को भर दिया; फिर भी वास्तव में कोई लाभ नहीं हुआ । एक रोग यदि डाक्टर रोक देते थे, तो चार नये हो जाते थे । बाल्यावस्था में माता-पिता हमें अत्यधिक प्यार करते थे, जरा भी कुछ हुआ कि वैद्य के पास पहुँचे । नित्य किसी-न-किसी वैद्य, डाक्टर या हकीम के घर जाता था या वे स्वयं आते थे । औषधियों के अलावा भोजन भी हमें ऐसा दिया जाता था; जिसे कभी हमारी आत्मा स्वीकार नहीं करती थी । नित्य एक-न-एक प्रकार का जहर खाना पड़ता था । भोजन वैद्यों और डाक्टरों के कहने से ऐसा दिया जाता था जिसे माता-पिता खड़े होकर, धमका और डरा कर और कभी-कभी मार कर भी खिलाते थे । दस-बारह वर्ष की अवस्था तक अपनी रुचि का भोजन न मिलने से शरीर अत्यन्त निबंल और पीला हो गया था । अन्त में माता-पिता दवा करते करते रुक गये। हमें अच्छा होते न देख कर अब माता-पिता का प्रेम भी कम होने लगा । वैद्यों, हकीमों और डाक्टरों स्रे 'पिण्ड छुटा । हम अब अपनी रुचि का भोजन करने लगे ।

             इसी बीच में हमारा ध्यान योग-साधन की ओर विशेष रूप से आकर्षित  हुआ । समाधि तो हमें ७ वष॑ की अवस्था में ही लग जाती थी, लेकिन कोई दूसरा गुरु नहीं मिला । साघुओं-सन्यासियों से पूछने पर वह कह दिया करते थे कि अभी तुम बालक हो, गृहस्त  हो, निबंल हो, रोगी हो, अतः योग के अधिकारी नहीं हो । बात यह थी कि वह स्वयं इसे नहीं जानते थे; पर साधुओं और सन्यासियों के लिए यह कहना कि “'हम योग नहीं जानते” बड़ी लज्जा की बात थी । अतः अनेक प्रकार से टाल-मटोल किया करने थे । हमें स्वयं अपने मार्ग  का पता लगाना था । कई बार ठोकर खाने के बाद अन्त  में किसी न किसी तरह से सत्य-मागे को ढूंढ  निकाला और ५० वर्षों तक योग-साधन कर लेने के बाद योग विषय पर “'योग-साधन” नाम की पुस्तक  हमने लिखी । इसके सहारे प्रत्येक गुहस्थ बिना गुरु के भी योग कर सकेगा ।यह पुस्तक “ज्ञांनशक्ति प्रेस, गोरखपुर” से मिल सकती है। माता-पिता ने योगाभ्यास करने से मना किया, पर हम अपने धुन के पक्के थे । इससे माता-पिता का प्रेम और भी कम हो गया । अब वह हमारे शरीर से निराश हो गए । अतः अब हम सर्बथा  स्वतन्त्र कर दिये गये । औषधियाँ वन्द कर दी गयी , डाक्टरों ने हमें देखना छोड़ दिया, माता-पिता ने हमारे दूसरे भाइयों को देखकर संन्तोष  धारण किया । इस बक्त हम सवंधा स्वतन्त्र थे, जो चाहें खायें जो चाहें करें और जहाँ  चाहें रहें । इसका बहुत्त अच्छा  प्रभाव पड़ा । हमारा शरीर दिन पर दिन क्रमश: बलवान्‌ और नीरोग होने लगा । कुछ वर्षों के बाद तवीयत अच्छी हो गई, मस्तिष्क स्वस्थ और मन प्रसन्न रहने लगा ।

              अब हमारे अन्त:करण में यह विचार उठने लगा कि रोगों के कारण वैद्य, हकीम, डाक्टर औपषधियाँ हैं। दिन पर दिन बीतते गये और हम क्रमशः बलवान्‌ और नीरोग होते गये । ज्यों-ज्यों अनुभव करते जाते थे; त्यों-त्यों यह विचार हृढ़ होता गया कि रोगों के कारण वैद्य, हकीम औषधि और डाक्टर हैं। हमने आयुर्वेद के ग्रन्थों को भी बड़े परिश्रम से पढ़ा; होमियोपैथी, हाइड्रोपैथी, क्रोमोपैथी युनानी चिकित्सा पद्धति और कुछ एलोपैथी को भी देखा; पर इन चिकित्साओं से हमारा मन प्रसन्न नहीं हुआ । हमें बहुत अच्छी अच्छी औषधियाँ मालूम हैं; पर हमारे अनुभव ने औषधियों की ओर से बड़ी अश्रद्धा और अविष्वास उत्पन्न कर दिया है । हमारा विष्वास था कि यदि सोचा जायगा; ध्यान किया जायगा और मनन किया जायगा तो एक न एक दिन नीरोग और स्वस्थ होने का कोई सर्वोत्तम उपाय अवश्य मिल जायगा । वही हुआ और इतने दिनों के परिश्रम, मनन, विचार, अध्ययन और चिन्तन के बाद वह सच्चा उपाय मिल गया । अब लिखना आरम्भ किया और ज्यों-ज्यों थोड़ा बहुत लिखते जाते थे, उसे “ज्ञानदक्ति" नाम की पत्रिका में, जो ज्ञानदक्ति प्रेस, गोरखपुर से अब भी निकलती है, देते जाते थे । “'ज्ञानशक्ति" इस विषय की वहुत पुरानी पत्रिका है । 'ज्ञानशक्ति' में ऐसे लेख बराबर निकलते रहते हैं ।

             --- शिव सुनि ---

ज्ञानशक्ति

योगेश्वर शिव मुनि महाराज ने सन 1913-14 में ज्ञानशक्ति नामक पत्रिका का शुभारम्भ किया अब यह मुनिसमाज की मुखपत्रिका है।

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