"यम नियमासन प्राणायाम
प्रत्याहार धारणा ध्यान
समाधयोऽष्टावंगानि।।"
(योगदर्शन पा० 2 सूत्र 9)
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, यह आठ अंग योग के उपर्युक्त सूत्र में माने गये हैं । अब यम के वारे में आलोचना करते है ।
"अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचापरिग्रहा यमाः ।।" (योगदर्शन पा० 2 सूत्र 16) योग साधना के समय अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँचों का पालन आवश्यक है। यही पांचो को यम कहते है । यहाँ सबके वारे में लिखना संभव नहीं है, फिर भी काम शब्द में लिखने की कोशिश किये है । अहिंसा -- किसी जीव के साथ बैर न रखना (मनसा, वाचा, कर्मणा स्तिथि में ), किसी को दुःख न देना, न किसी का वध करना और मन में सर्वदा दया और प्रेम का भाव रखना "अहिंसा" है । कोई कोई अहिंसा का मतलब हत्या न करना समझते हैं । लेकिन असल में मनसा, वाचा, कर्मणा स्तिथि में अहिंसा पालन करना सही अहिंसा है । मतलब, मन में हिंसा के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए, अपने बातों से किसीके प्रति हिंसा नहीं दिखाना चाहिए और कार्य में भी हिंसा नहीं दिखाना चाहिए । सत्य -- मन और पांच ज्ञानन्द्रियों द्वारा जैसा जाना जाए वैसा ही छल और कपट रहित होकर कहना और किसी पुस्तक के लिखने या किसी के कहने का पक्षपात न करना "सत्य" है। अस्तेय -- किसी पदार्थ, द्रव्य या वस्तु को बिना उसके मालिक की आज्ञा के ग्रहण न करना "अस्तेय" है। थोड़े में यदि कहा जाय तो अस्तेय का अर्थ किसी प्रकार की चोरी न करनी है। ब्रह्मचर्य -- सोते, उठते, बैठते और चलते हर वक्त बराबर ब्रह्म ज्ञान के स्मरण द्वारा अपने ब्रह्मत्व को न भूलना और कभी अपने जीव को तुच्छ, छोटा या नीच न समझना ब्रह्मचर्य है। साफ-साफ ब्रह्मचर्य का अर्थ यह है कि योगी संसार के भीतर कार्यक्षेत्र में उतरने पर भी (व्यवहार में) या योगसाधन के समय कभी अपनी आत्मा तथा अपने को शक्तिहीन समझ कर उत्साह हीन दुर्बल हृदय, नपुंसक और कायर न बने। ब्रह्मज्ञान द्वारा अपनी आत्मा की उच्चता, महत्ता, और शक्ति का ध्यान रखकर हृदय को सूरत, वीरता, निर्यात और बहादुरी के भावों से सर्वदा पूर्ण रखना "ब्रह्मचर्य" है। अपरिग्रह -- बिना किसी प्रकार की मेहनत और मजदूरी किये किसी से कुछ भी माँगकर ग्रहण करना परिग्रह है और किसी समय कभी किसी से भी भीख माँगकर या घूस के रूप में कुछ भी ग्रहण न करना “अपरिग्रह" है। मन बारम्बार इन पाँचों से अलग होने चाहेगा। बारम्बार इन प्रतिज्ञाओं और ब्रतों को (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को) छोड़ना चाहेगा । पर बारम्बार मन की बृत्तियों को पकड़कर इन प्रतिज्ञाओं और व्रतों से विचलित न होने देना धारणा योग है। योग के साथन काल में सर्वदा अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि यम की प्रतिज्ञा और व्रत का ध्यान रखना ध्यान योग है। इसी तरह एक आसन से बैठकर तर्क-वितर्क और प्रमाणों द्वारा इस व्रत की उपयोगिता समझ लेनी चाहिए और निश्चय हो जाने पर हृदय के भीतर इनके विरूद्ध किसी प्रकार की भावना न आने देना तथा पीछे से बिना किसी तर्क-वितर्क, प्रमाण, निद्रा और स्मृति के निश्चय रूप से मन में इन ब्रतों को दृढ़ कर लेना समाधि योग है। इस प्रकार से मन में धारणा करके या उसे दृढ़ करने के लिए सुखपूर्वक बैठना आसन है। वृत्तियों के अभाव से और एक जगह निश्चय बैठकर मन को यम पर दृढ़ कर लेने से श्वास का वेग बिना रोके यदि कम हो जाय तो इसी को यम का प्राणायाम कहेंगे। अतः यह सिद्ध हुआ कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप यम के साधन से योग के तमाम अंगों का साधन हो जाता है। यह पाँच केवल एक प्रकार के सत्कर्म ही नहीं किन्तु पूर्णरूप से योग हैं और योगसाधन के भीतर हैं।
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