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"Shubh Bhavna",   
                                                                         Written by Shivmuni himself

"जादृसी भाबना जस्य, सिद्धि भवति तादृसी ।"

    Our thinking and feeling - according to it is the power of our being. Our thinking affect our  mind and body. The best part is our subconscious mind which makes miracle in our life. Positive thinking or Shubh Bhavna has its powerful and vibrant effects in our life. Shivamuni had realized it from very early stage and spread the idea of "Shubh Bhavna" in every Muni's life. By this "Shubh Bhavna", one can make all impossibles possible in life.

"भावना का प्रभाव"

​        मन के भावों का रंग बदलते ही शरीर का रंग बदलने लगता है। क्रोध का भाव आते ही आंख और मुखमण्डल लाल हो जाते हैं । श्वास तेज चलने लगता है, फेफड़ा और हृदय की गति तेज हो जाती है, भुजदण्ड और सारा शरीर फड़कने और कांपने लगता और आवाज तेज हो जाती है। यह क्रोध क्या है, मन का भाव ही तो है। इसी तरह से भय का भाव आते ही शरीर के रोम-रोम खड़े हो जाते हैं, और कभी कभी मनुष्य बेहोश हो जाता और ज्वर चढ़ जाता है। कभी- कभी तो हृदय की गति रूक जाती और मनुष्य मर जाता है। यह भय क्या है मन का भाव ही तो है।

        विद्वान बनने की दृढ़ इच्छा और दृढ़ भाव जिस बालक में आता है वह मन लगाकर परिश्रम के साथ पढ़ने लगता है। बहादुरी का भाव आते ही मनुष्य अपनी मोछों को खड़ी करने लगता है, छाती तन जाती है, सर ऊँचा हो जाता है और बल बढ़ जाता है फिर वही रणक्षेत्र में कूदकर विजयी होता है।

        करूणा का भाव आते ही ह्रदय पिघल जाता है और आँखों के रास्ते पानी बनकर निकलने लगता है। लोभ का भाव आते ही मनुष्य धन के लिए दौड़ने लगता है। काम वासना का भाव आते ही मनुष्य के शरीर मैं कैसा परिवर्तन होने लगता है इसे हम यहां लिखकर इस पवित्र लेख को अश्लील बनाना नहीं चाहते। किसी शत्रु को देखकर ईर्षा-द्वेष और शत्रुता का भाव आते ही शरीर में आग लग जाती और रक्त खौलने लगता है।

       मन में चलने का भाव आते ही मनुष्य चलने लगता और चलते मनुष्य में बैठने का भाव आते ही वह बैठ जाता है। जब तक यहां के मुनियों का यह भाव था कि

“शरीरं शिवमन्दिरम”

शरीर कल्याण स्वरूप भगवान का घर है। तब तक वे सचमुच नीरोग थे। जबसे उन्हीं के वंशजों के मन में यह भाव आया कि

​“शरीरं व्याधि मन्दिरम”

शरीर रोग का घर है, तबसे सचमुच रोगी हो गए। मनुष्य मनोमय है। अपने को नीच मानने वाला नीच हो ही जाता है और ठीक इसी तरह से मनुष्य के उच्च भाव मनुष्य को उच्च बनाते जाते हैं। ऊंचे भावों का प्राणी ही अच्छा कर्म करता और ऊंचा हो जाता है और नीच भावों का प्राणी ही नीच कर्म करके नीच हो जाता है। मन के गन्दे और मैले भाव मनुष्य को गन्दा और मैला बना देते हैं । अतः पुराने गन्दे भावों को निकालकर इन नवीन भावों को भर दो। नया रंग मैले कपड़े पर नहीं चढ़ता। नया रंग अच्छा और चटकीला करने के लिए जैसे कपड़े को खूब साफ, स्वच्छ और उज्जवल करना पड़ता है उसी तरह से मुनिसमाज के इन उच्च भावों का रंग चढ़ाने के लिए शरीर के अंग-अंग, अणु-अणु और अवयव-अवयव को निर्विकार, नीरोग, साफ और स्वच्छ करना पड़ेगा।

        आत्मा के भीतर जैसी भावना आती है ठीक वैसी ही सब बातें और कार्य्य शरीर के भीतर होने लगते हैं। मनुष्यात्मा अपने जीवन भाग्य और परिस्थितियों को वैसा ही बना और बिगाड़ सकता है जैसी उसकी भावना, विश्वास और इच्छा है। जिसकी यह भावना है, जिसका यह विश्वास है कि हम इस कार्य को नहीं कर सकते व जो अपने को उस कार्य्य के अयोग्य समझता है, तथा जो अपने को स्वयं नीच समझता है, वह कंभी न ऊंचा काम कर सकता हैं और न ऊंचे और बड़े का्य्यों को पूर्ण करके सफल हो सकता है। जो अपने को संसार के किसी कार्य्य के अयोग्य समझता है, वही अज्ञानी है और महापापी है; वह संसार में कुछ नहीं कर सकता। यहीं सच्चा ज्ञान मुनिसमाज की देन है जो संसार को दे रही है।

        रोग, दोष, वात, पित्त, कफ, कमर, पेट, गुदा और अंतड़ी सब जड़ हैं और जड़ होने के कारण आपके अधीन हैं। यह रोग दोष, वात-पित्त और कफ जड़ होने के कारण चेतन के इशारे पर चलेंगे स्वर्य॑ कुछ नहीं कर सकते। आप जैसी भावना करें, जैसे चलावें उस तरह से वह चलने के लिए विवश है। यह नियम है और नियम होने के कारण यह अटल और अचल है; इसके विरूद्ध कुछ नहीं हो सकता है। आप को यदि इस ज्ञान में विश्वास हो गया और आपने अपने इस स्वामित्व और ईश्वरत्व को जान लिया तो आप का रोग-दोष और वात, पित्त, कफ जो जड़ हैं क्या कर सकते हैं। आप जिस समय से इस सत्यज्ञान को धारण कर अपनी भावना को शुद्ध कर लेते हैं, उसी समय से नीरोग, शुद्ध और सबल होने लगते हैं। अतः यदि आप और कोई साधन किसी कारण से किसी दिन नहीं कर पाते हैं तो कम से कम शुभभावना तो प्रत्येक मुनि को नित्य साय॑ प्रातः दोनों कालों में निश्चिन्त और एकाग्र चित्त होकर कर लेना चाहिए । यह शुभभावना उसी विधि से शुरू करनी चाहिए जैसा कि साधनकाल में हमने अपने शिष्यों और मुनियों को बतलायी है । शुभभावना निम्नलिखित प्रकार से है :

शुभ भावना

(1)

हम हैं अमर, नीरोग हैं, हम सर्वशक्तिमान्‌ हैं ।

सुन्दर युवा बलवान्‌ हैं, धनवान हैं भगवान्‌ हैं ।।

(2)

अब ज्ञान सच्चा हो गया, बस रोग दुःख सब दूर हैं।

हम रूप यौवन युक्त हैं, आनन्द से भरपूर हैं ।।

(3)

आनन्द से हम हैं उछलते, रोग मुझमें हैं नहीं।

हम हैं युवा हम हैं अमर, धनधान्य सब कुछ है यहीं ।।

(4)

हम भूपके भी भूप हैं, भगवान्‌ के भगवान्‌ हैं।

जो जीव को छोटा कहें, वे मूर्ख हैं नादान हैं ।।

(5)

बन्धन हमारा कट गया, सद्ज्ञान से हम युक्त हैं।

हम शिव सुखी स्वाधीन हैं, निश्चिन्त जीवनमुक्त हैं ।।

संस्कृत शुभ भावना

(1)

निरञ्जनोऽहं जगदीश्वरोऽह्म् ,

सुशक्ति समर्थ्य् युतोऽहमीश: ।

​निरामयोऽहम अजरामरोऽह्म् ,

सुसुन्दरोऽहं धनिकः कुबेर: ।।

( 2)

पति: पतीनां परमेश्वरोऽह्म् ,

भूपस्यभूपो भुवनेश्वरऽह्म् ।

अहमीश्वराणां सर्वेश्वरोऽह्म् ,

बन्धन विमुक्तो मुक्तेश्वरोऽह्म् ।।

 

(3)

अहम् परंब्रह्म युवा कुमार: ,

प्रसन्न​ आनन्दमयोऽह्मात्मा ।

विशुद्धविज्ञानघनोति निर्मल: ,

पुर्णश्चिदानन्द मयशिवोऽह्म् ।।

(1)

अमरोऽहब्च नीरोग:, सर्वशक्ति युतस्तथा ।

बल-यौवन-सौन्दर्य- धनवान भगवान्‌ स्वयम् ।।

(2)

आत्मनः सत्यज्ञानेन, रोग दुःख विवर्जित: ।

​रूप-यौवन-सम्पन्न:, आनन्दाब्धी तराम्यहम् ।।

(3)

 आनन्देन युते पुर्ण, रोगाणामुदभवः कुत्तः ।

अमरोऽह॑ युवा चैव, धनधान्य समन्वितः ।।

(4)

भूपानामस्मि भूपेऽहमू, ईश्वरस्येश्वर स्वयम्‌ ।

​अनात्मज्ञा लघुंजीवमू, प्रवदन्ति न पण्डिता: ।।

(5)

सर्वथावन्धमुक्तोऽह्म् , आत्मज्ञानयुतस्तथा ।

शिव:सुखीस्वतन्त्रश्च​, जीवन्मुक्तोऽस्मिसर्वदा ।।

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