Nirog Hone ka Adbhut Upaya
......Written by Shivmuni himself
"Nirog Hone Ka Adbhut Upay" book is a gift from Shiv Muni Maharaj to mankind, whose main purpose is to make people understand regarding reason of diseases and their cure. This book says not to be panic when disease attacks, cause falling sick is natural process of health management by nature and soul (Aatma). Please go through this book to understand natural health management and stay healthy.
अध्याय - १ : मानसी चिकित्सा
यदि तुम रोगी और बीमार हो तब भी किसी तरह से बार-बार भावना करो कि हम नीरोग हैं। बस, तुम अवश्य अच्छे हो जाओगे । पर झूठ से भलाई नहीं हो सकती, यह हम भी मानते हैं। फिर, इस झूठी भावना से भलाई क्यों होगी ? बात यह है कि नीरोग की भावना झूठी नहीं है, यह वास्तविक है। अज्ञान से ही हम इस भावना को झूठी समझते हैं। झूठी है रोगी की भावना; नीरोग की नहीं। हम स्वभाव से ही नीरोग और निरामय है। जबतक इस बात को अच्छी तरह समझ न लेंगे, हम नीरोग न होंगे। क्योकि बिना सिद्धान्त को समझे, बिना दृढ़ विचार के, भावना भी दृढ़ नहीं होती। जिन लोगों ने इस सिद्धान्त को नहीं समझा है वे कहते हैं कि- “यद्यपि यह बात सर्वथा ठीक नहीं है; पर, शायद नीरोग की भावना करने से हम अच्छे हो जाये, इसलिए हम भावना कर रहे हैं कि नीरोग हैं।“ ऐसी भावना बलवती नहीं होती। यह कच्ची भावना है। तुम जो भावना करने से अच्छे नहीं हुये, उसका कारण यही है कि तुम्हारी भावना कच्ची थी । जब तक इस फिलासफी को तत्व से और खूब विचार पूर्वक न समझोगे, तुम्हारी भावना पक्की न होगी।
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अध्याय - २ : निरोग रहने का अद्भुत उपाय
आश्चर्य यह है कि जो निराकार है, निरामय है और नीरोग है उसे ही यह शंका लगी हुई है कि हम रोगी हैं। जिसे रोग छू तक नहीं सकता—जिसे स्मरण कर रोग स्वयं भी नीरोग हो सकता है-वही अपने को रोगी माने; इससे बढ़कर आश्चर्य का विषय सचमुच दूसरा नहीं हो सकता। नीरोग, निर्विकार, निरामय और परम, शुद्ध, बुद्ध तथा पवित्र पुरुष यदि अपने को रोगी माने तो क्या यह एक प्रकार का पाप नहीं है ? बस, इसी पाप का फल है कि मनुष्य रोगी हो जाता है। रोगी न होते हुए भी जो अपने को रोगी मानता है, वह यदि रोगी रहे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं -
“यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी”
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अध्याय - ३ : ब्रह्मज्ञान-चिकित्सा
“सर्व खल्विदंब्रह्म” - वेद के, इस वचन के अनुसार सब कुछ और सारा संसार ईश्वर है। यदि ईश्वर सब है और ईश्वर विश्वासरुपा है तो “विश्वास” ही सब कुछ हुआ। अत: तुम्हारा जैसा विश्वास है, वही तुम हो, वही तुम्हारे सामने है और वैसा ही संसार है । यदि यह ठीक है, तो क्यों कहते हो कि हम रोगी हैं ? यदि अपने मानने ही से तुम रोगी हुए हो, तो अपने को नीरोग क्यों नहीं मानते ? वह कभी महात्मा नहीं है, जो शरीर को अपवित्र, अशुद्ध और रोगी कहता है। शरीर स्वभाव से ही नीरोग, पवित्र और शुद्ध है-इस पर विश्वास रक्खो और नित्य इसी की भावना करो।
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अध्याय - ४ : ध्यान-चिकित्सा
प्रातःकाल सबसे पहले जब आप की निद्रा टूटती है, उस समय अन्य भावनाओं से हृदय स्वच्छ रहता है - इस समय की भावना का शरीर पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है । अत: प्रातःकाल ज्यो हो निद्रा टूटे सबसे पहले यही भावना करो कि हम नीरोग हैं । हमारे शरीर से रोग नीकल रहा है । चारों तरफ हमारे शरीर के भीतर अमृत-स्वरूप निरामय परमात्मा व्यापक हो रहा है । चिन्तन करो कि हमारे चारों ओर अमृत-स्वरूप निरामय परमात्मा का समुद्र भरा हुआ है । हमारे अणु-अणु में वह व्यापक हो रहा है । रोग का कहीं पता नहीं । बस इतना सोचकर उठो, अपना नित्य कर्म कर डालो, योग-व्यायाम भी कर डालो ।
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अध्याय - ५ : रोग, रोग नहीं है
बड़ी भारी भूल तो रोग के पहचानने में होती है । जिसे हम लोग प्रायः रोग कहा करते हैं, वे रोग नहीं हैं । मान लीजिए कि हम कहीं से दौड़े आ रहे हैं । पेट जलते हुए तवे के समान गरम है। इसी समय आकर हमने दो ग्लास पानी पी लिया । जिस तरह जलते हुए तवे पर पानी डालने से वह भाप बनकर उड़ जाता है; उसी तरह ऐसे समय में जब पेट में पानी जाता है तो उसका बहुत-सा भाग धूम या भाप बनकर ऊपर को उड़ जाता है। यह धूम ऊपर आकर मस्तिष्क की ओर जमा हो जाता है । अब, प्रकृति का यह प्रबन्ध है कि शरीर में विजातीय परमाणु व विजातीय कीटाणु नहीं रहने पाते ।
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अध्याय - ६ : ईश्वर और रोग
सौ में निन्यानब्बे के विचार से संसार को ईश्वर ने उत्पन्न किया है और ईश्वर परम पवित्र, निरामय, नीरोग, निर्विकार, निर्लेप और निरंजन है । क्या जो निर्विकार है, उसी से विकार की सृष्टि हो सकती है ? क्या जो निरामय और नीरोग है; वही रोगों को उत्पन्न करेगा ? क्या जो निष्पाप है, वही पापों को बना सकता है ? क्या जो आनंदस्वरूप, आनंदकंद और सच्चिदानन्द है वही दु:ख, क्लेश और विपत्ति की सृष्टि कर सकता है ? कभि नहीं । परमानन्द, सच्चिदानन्द, परमात्मा जो निरामय, निर्विकार और निष्कलंक है वह कभी पाप, दोष, रोग और दु:ख नहीं बना सकता । रोग : उत्पन्न ही नहीं हुये । रोगों की सृष्टि ही नहीं हुई, रोगों को ईश्वर ने बनाया ही नहीं ।
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